कर्पूरी ठाकुर (24 जनवरी 1924 – 17 फरवरी 1988) भारत के स्वतंत्रता सेनानी, प्रथम गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री, समाजवादी चिंतक और जननायक कहे जाने वाले बिहार के राजनेता थे। उनका जन्म बिहार (अब समस्तीपुर) के पितौंझिया (कर्पूरीग्राम) नामक गाँव के एक सीमांत किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता गोकुल ठाकुर नाई समुदाय के थे और अपने परंपरागत पेशे में दक्ष थे। बाल्यावस्था से ही कर्पूरी सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक विषमता के बीच पले, परंतु उनकी प्रतिभा और कर्मठता ने उन्हें बिहार की राजनीति के शिखर पर पहुँचा दिया।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
कर्पूरी ठाकुर ने 1940 में पटना विश्वविद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में पास की। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण उन्हें 26 महीने की जेल हुई। इसके बाद उनका झुकाव समाजवादी विचारधारा की ओर हुआ और वे आचार्य नरेंद्र देव व जयप्रकाश नारायण के संपर्क में आए। वे पटना विश्वविद्यालय में छात्र राजनीति में सक्रिय रहे और ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के सदस्य बने। आजादी के बाद उन्होंने अपने गाँव में ही शिक्षक के रूप में जीवन आरंभ किया।

कर्पूरी ठाकुर के राजनीतिक संघर्ष की प्रमुख घटनाएँ
कर्पूरी ठाकुर का पूरा राजनीतिक जीवन संघर्ष, साहस और अन्याय के विरुद्ध जन-संघर्ष की मिसाल रहा। उन्होंने बिहार की राजनीति को गहराई से प्रभावित किया और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में अमिट छाप छोड़ी। उनके जीवन की प्रमुख राजनीतिक घटनाएँ इस प्रकार हैं:
प्रारंभिक संघर्ष और स्वतंत्रता आंदोलन
- 1930 के नमक सत्याग्रह में भागीदारी: कर्पूरी ठाकुर ने बाल्यकाल में ही ब्रिटिश शासन के विरोध में नारेबाजी और जनजागरण की शुरुआत की। यहीं से उनके राजनीतिक मूल्यों की नींव पड़ी।
- 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन: कॉलेज के दिनों में ही उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई, गिरफ्तार हुए और करीब 26 महीने जेल में बिताए। वह पढ़ाई छोड़कर नेपाल की सीमा से भी भूमिगत संघर्ष चलाते रहे।
- जेल में भूख हड़ताल: 1943 में जेल में बंद रहते हुए उन्होंने 27 दिनों तक भूख हड़ताल की, जिससे वे जेल प्रशासन के लिए चुनौती और कैदियों के बीच प्रेरणा बन गए।
राजनीतिक सक्रियता और आज़ादी के बाद का संघर्ष
- 1952 में पहली बार विधायक: स्वतंत्र भारत के पहले आम चुनाव में समस्तीपुर के ताजपुर सीट से समाजवादी दल के टिकट पर जीतकर विधायक बने, यह सीट उन्होंने लगातार जीती।
- जमींदार विरोधी आंदोलन: 1948 में जयप्रकाश नारायण के ‘आज़ाद दस्ता’ से जुड़कर जमींदारों के खिलाफ एकजुट किसानों का संघर्ष चलाया और वंचितों में जमीन बंटवारे का काम किया।
- भूमि सुधार के लिए संघर्ष: उन्होंने विधानसभा में ज़मीन के बंटवारे, हदबंदी कानून और भूमिहीनों के हक के लिए लगातार आवाज़ उठाई, लेकिन कांग्रेसी सरकार की उदासीनता के कारण उनके प्रयास फलीभूत नहीं हो पाए।
- 1967 में उपमुख्यमंत्री: बिहार में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार में उपमुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री बने। इस दौरान उन्होंने मैट्रिक में अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म की, जिससे लाखों छात्रों को लाभ मिला।
मुख्यमंत्री पद और सामाजिक न्याय की लड़ाई
- 1970 एवं 1977 में मुख्यमंत्री: कर्पूरी ठाकुर दो बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। पहली बार 1970 में (मात्र 5 महीने के लिए) और दूसरी बार 1977 में।
- 26% आरक्षण का ऐतिहासिक फैसला: 1978 में उन्होंने पिछड़ी जातियों और कमजोर वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 26% आरक्षण लागू किया। यह निर्णय उस ज़माने में अभूतपूर्व था और इससे पूरे देश में सामाजिक न्याय की बहस शुरू हुई।
- आरक्षण विरोधी आंदोलन और हमले: इस फैसले के बाद उनके खिलाफ जातिवादी नारेबाजी और विरोध प्रदर्शन हुए। उन्हें “कर्पूरी कर्पूरा-छोड़ गद्दी पकड़ उस्तुरा” जैसे अपमानजनक नारों का सामना करना पड़ा, लेकिन वे डटे रहे।
- ईमानदारी और सादगी का संकल्प: मुख्यमंत्री रहते हुए भी उन्होंने अपना सादा जीवन जारी रखा। उनके पास न तो अपना घर था, न गाड़ी और न ही कोई संपत्ति।
आपातकाल और जन आंदोलन
- 1974 का जेपी आंदोलन: जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र आंदोलन में सक्रिय सहभागिता। इमरजेंसी लगने के बाद भूमिगत होकर नेपाल, दिल्ली, मुंबई आदि जगहों से आंदोलन को सक्रिय बनाए रखा।
- 1977 में जनता पार्टी की जीत: आपातकाल के बाद हुए लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की जीत में उनकी अहम भूमिका रही, फिर बिहार में दोबारा मुख्यमंत्री बने।
भ्रष्टाचार और सुधार की पहल
- भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम: उन्होंने कानून बनाकर भ्रष्टाचार रोकने की पहल की, विधानसभा में एंटी-करप्शन कमेटी के गठन की मांग की, जो उस समय कांग्रेस सरकार को पसंद नहीं आई।
- शराबबंदी: उनके कार्यकाल में बिहार में शराबबंदी लागू की गई, जो एक बड़ा सामाजिक सुधार था।
- शिक्षा और भाषा सुधार: हिंदी को प्रशासनिक भाषा बनाने, अंग्रेजी की अनिवार्यता हटाने और शिक्षा को सुलभ बनाने के लिए प्रयास किए।
जननायक के रूप में विशिष्ट पहचान
- पिछड़ा वर्ग का नेता: उन्होंने 1977 में बिहार में पहली बार पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए 27% आरक्षण की व्यवस्था लागू की, जो बाद में पूरे देश में मंडल आयोग की सिफारिशों का आधार बना।
- शिक्षा सुधार: शिक्षा मंत्री के रूप में उन्होंने मैट्रिक के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता हटाई, जिससे छात्र-छात्राओं को परीक्षा पास करने में आसानी हुई। उन्होंने हिंदी को प्रशासनिक भाषा के रूप में स्थापित किया और राज्य के सभी विभागों में हिंदी में कार्य करने को अनिवार्य बनाया।
- शराबबंदी: 1977 में उन्होंने बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू की, जो एक बड़ा सामाजिक सुधार था।
- कृषि सुधार: उन्होंने 5 एकड़ से कम जोत वाले किसानों से मालगुजारी खत्म कर दी और उर्दू को राज्य की दूसरी भाषा का दर्जा दिया।
- दहेज-विरोधी आंदोलन: दहेज उन्मूलन और महिला शिक्षा को प्रोत्साहन दिया।
- ईमानदारी और सादगी: कर्पूरी ठाकुर पूरे देश में अपनी सादगी, ईमानदारी और सामाजिक प्रतिबद्धता के लिए मशहूर हुए। वे मुख्यमंत्री रहते हुए भी रिक्शे पर चलते थे और सालों तक चुनाव जीतने के बावजूद अपने लिए खुद का मकान तक नहीं बना पाए।
“कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे। 1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे। राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब वो मरे तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था। ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए।”
सामाजिक न्याय के पुरोधा
उनकी राजनीतिक विचारधारा लोहिया, जयप्रकाश नारायण और समाजवाद से प्रेरित थी। उन्होंने निजी जीवन में कभी भी पैतृक संपत्ति या राजनीतिक संबंधों का लाभ नहीं उठाया। वंचितों, दलितों और पिछड़ों की आवाज बनकर उभरे, जिससे उन्हें जननायक की उपाधि मिली।
व्यक्तिगत सादगी के किस्से
- आर्थिक तंगी: कर्पूरी ठाकुर के पास अपना स्वयं का कोट तक नहीं था। एक बार विदेशी यात्रा पर भी वही फटा कोट पहनकर गए थे।
- रिश्तेदारों को सिफारिश नहीं: उन्होंने कभी भी किसी रिश्तेदार की सरकारी नौकरी में सिफारिश नहीं की। उनका बहुत प्रसिद्ध किस्सा है कि जब उनके बहनोई ने नौकरी के लिए अनुरोध किया, तो उन्होंने पचास रुपये देकर कहा, “उस्तरा खरीदकर अपना पुश्तैनी धंधा शुरू करो”।
- गाड़ी तक नहीं: उनके पास गाड़ी खरीदने के लिए धन नहीं था। वे मुख्यमंत्री रहते हुए भी रिक्शे पर चलते थे।
- परिवार को विरासत में कुछ नहीं: उनका सबसे बड़ा आघात यह था कि वे अपने परिवार को विरासत में एक मकान तक देकर नहीं गए।

विरासत और अंतिम दिन
- सादगी की मिसाल: तीन दशक की राजनीति के बाद भी उनके पास अपना कोई घर नहीं था। उनकी ईमानदारी और सादगी ने उन्हें जननायक बनाया।
- मरणोपरांत भारत रत्न: 2024 में उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया, जो उनके संघर्ष और योगदान की मान्यता है।
- 17 फरवरी 1988 को निधन: उनका निधन अंतिम दम तक जनसेवा और समाजवादी आदर्शों के प्रति समर्पित रहते हुए हुआ।

